दी ग्रेट स्पैरो कैंपेन: जब एक ऐतिहासिक भूल ने करोड़ों को मौत के घाट उतार दिया

 

परिचय

प्रकृति और मानव के बीच संतुलन एक नाजुक डोर पर टिका होता है। इतिहास में कई बार हमने देखा है कि जब भी मनुष्य ने इस संतुलन को अपने फायदे के लिए तोड़ने की कोशिश की, परिणाम हमेशा विनाशकारी रहे हैं। चीन में 1958 में शुरू हुआ ‘दी ग्रेट स्पैरो कैंपेन’ (The Great Sparrow Campaign) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यह अभियान न केवल एक भयावह गलती साबित हुआ, बल्कि इसकी कीमत लाखों लोगों ने अपनी जान देकर चुकाई।

यह लेख उस ऐतिहासिक घटना पर आधारित है जिसने चीन को एक गहरे संकट में डाल दिया था।

एक बच्चा शिकार की हुई गोरैया (Sparrow - स्पैरो) के साथ



अभियान की पृष्ठभूमि

1950 के दशक में चीन एक कृषि प्रधान देश था। चीन के नेता माओ जेडोंग (Mao Zedong) ने देश को आर्थिक और औद्योगिक रूप से मजबूत बनाने का संकल्प लिया था। उन्होंने ‘दी ग्रेट लीप फ़ॉरवर्ड’ (The Great Leap Forward) नामक एक महत्त्वाकांक्षी योजना की शुरुआत की, जिसके तहत चीन को कृषि और औद्योगिक उत्पादन में विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के समकक्ष लाने का लक्ष्य रखा गया।

इस योजना के अंतर्गत उत्पादन बढ़ाने के लिए कई उपाय अपनाए गए, जिनमें से एक था ‘चार कीट अभियान’ (Four Pests Campaign)। इस अभियान के तहत मच्छर, चूहे, मक्खियाँ और गोरैयाओं को मारने का आदेश दिया गया। सरकार का मानना था कि ये जीव कृषि उत्पादन में बाधा डाल रहे हैं। विशेष रूप से, गोरैया को एक प्रमुख समस्या के रूप में देखा गया, क्योंकि यह अनाज के दाने और बीज खाती थी।


गोरैया के खिलाफ युद्ध

सरकार द्वारा यह प्रचार किया गया कि गोरैयाएँ हर साल 4.5 किलोग्राम अनाज नष्ट कर देती हैं। यदि गोरैयाओं को खत्म कर दिया जाए, तो अनाज की उपलब्धता बढ़ जाएगी और खाद्य उत्पादन में वृद्धि होगी। इस विचारधारा के आधार पर ‘दी ग्रेट स्पैरो कैंपेन’ शुरू किया गया।

लाखों लोगों को इस अभियान में शामिल किया गया। बच्चों, महिलाओं, किसानों, सैनिकों—हर किसी को गोरैया मारने के लिए प्रेरित किया गया। लोगों को सिखाया गया कि वे ढोल और पिटारे बजाकर गोरैयाओं को उड़ने पर मजबूर करें, ताकि वे थककर गिर जाएँ और मर जाएँ। उनके घोंसले नष्ट कर दिए गए, अंडों को फोड़ दिया गया, और नवजात चूजों को मार दिया गया।

सरकार ने इस अभियान को इतना उग्र रूप दिया कि पहले ही दिन लाखों गोरैयाओं की हत्या कर दी गई।

मरी हुई गोरैयाओं की लड़ी बनायी जाती थी



परिणाम: एक भयावह भूल

प्रारंभ में यह अभियान सफल लगता था। लोग खुश थे कि उन्होंने सरकार के आदेशों का पालन किया और बड़ी संख्या में गोरैयाओं को मार दिया। लेकिन यह खुशी ज्यादा समय तक नहीं टिक पाई।

गोरैया न केवल अनाज खाती थी, बल्कि खेतों को नुकसान पहुँचाने वाले कीटों को भी खाती थी। जैसे ही गोरैयाओं की संख्या कम हुई, खेतों में कीटों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। टिड्डियों और अन्य कीटों ने पूरे खेतों को चट कर दिया।

देखते ही देखते चीन में खाद्यान्न संकट गहरा गया। 1959 से 1961 के बीच चीन में भयंकर अकाल पड़ा, जिसे ‘महान अकाल’ (Great Chinese Famine) के नाम से जाना जाता है।


अकाल और भुखमरी

गोरैयाओं के सफाए के बाद खेतों में टिड्डी दलों का हमला शुरू हो गया। वे बड़े-बड़े खेतों को कुछ ही दिनों में नष्ट कर देते थे। परिणामस्वरूप, खाद्य उत्पादन में भारी गिरावट आई।

खाद्यान्न संकट इतना भयावह हो गया कि करोड़ों लोग भुखमरी का शिकार हो गए। लोगों के पास खाने को कुछ नहीं था। गाँवों में लोग घास और जंगली पौधों को खाने पर मजबूर हो गए। कुछ मामलों में तो लोग मरने वालों के शव खाकर अपनी भूख मिटाने लगे।

1958 से 1961 के बीच लगभग 30 से 45 मिलियन (तीन से साढ़े चार करोड़) लोग इस अकाल के कारण मारे गए। यह मानवीय इतिहास की सबसे भयंकर त्रासदियों में से एक बन गया।




सरकार की गलती का एहसास

1960 में, जब सरकार को इस भयावह गलती का अहसास हुआ, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। माओ जेडोंग ने गोरैयाओं के खिलाफ अभियान को समाप्त करने का आदेश दिया। लेकिन अब सवाल यह था कि गोरैयाओं को वापस कैसे लाया जाए।

इसके लिए चीन ने रूस से गोरैयाओं को आयात किया और उन्हें अपने देश में दोबारा बसाने की कोशिश की। हालाँकि, इस पूरी प्रक्रिया में कई साल लग गए, और तब तक चीन को अपार जनहानि का सामना करना पड़ा।


सबक जो हमें सीखने चाहिए

इस पूरी घटना से कुछ महत्वपूर्ण सीख मिलती है:

  • प्राकृतिक संतुलन से छेड़छाड़ के गंभीर परिणाम हो सकते हैं। गोरैयाओं का सफाया करने से चीन में अकाल पड़ा, जिससे करोड़ों लोगों की मौत हो गई।
  • छोटे-छोटे जीव भी पारिस्थितिकी तंत्र के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। गोरैया न केवल अनाज खाती थी, बल्कि कीटों को भी नियंत्रित रखती थी।
  • सरकारी नीतियाँ सोच-समझकर बनाई जानी चाहिए। बिना वैज्ञानिक अध्ययन के उठाए गए कदम तबाही का कारण बन सकते हैं।

  • अकाल से बचाव के लिए कृषि में विविधता आवश्यक है। केवल अनाज उत्पादन पर ध्यान देने के बजाय, जैविक और प्राकृतिक खेती को अपनाना चाहिए।



निष्कर्ष

‘दी ग्रेट स्पैरो कैंपेन’ इतिहास की एक भयावह भूल थी, जिसने साबित कर दिया कि प्रकृति से छेड़छाड़ करना भारी पड़ सकता है। यह घटना हमें याद दिलाती है कि किसी भी पर्यावरणीय निर्णय को लेने से पहले उसके दीर्घकालिक प्रभावों का आकलन करना आवश्यक है।

आज भी कई जगहों पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जा रहा है, वनों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, और कई प्रजातियाँ विलुप्त होने की कगार पर हैं। अगर हम समय रहते नहीं चेते, तो हमें भी इसी तरह की त्रासदियों का सामना करना पड़ सकता है।

इसलिए, हमें इतिहास से सीख लेनी चाहिए और प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर आगे बढ़ना चाहिए।

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